मन, मानव शरीर का सबसे चंचल तत्व है ...किसी मुश्किल से मुश्किल प्रश्न में भी वो जटिलता नहीं होती जो मन में होती है ...और अस्थिरता में तो इसका कोई सानी नहीं है ...इस पल यहाँ तो उस क्षण कही और ...
इस कविता में जिस अस्थिरता आप अनुभव करेंगे वो इसी मन का दोष है ...मैं तो एक सारथी हूँ जो रथसवार के आज्ञा के अनुसार ही रथ चलाता है ....
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चंचल सरिता सा बहता मेरा मन, कल-कल छल-छल करता मेरा मन
जाने किस ओर चला है मेरा मन, जाने किसे ढूढ़ रहा है मेरा मन
पल में खुश तो पल में दुखी, पल में प्रकट तो पल में अन्तरमुखी
पल में वृक्ष की शीतल छाया, पल में विशाल प्रज्वलित ज्वालामुखी
कभी वीणा के तार सा झंकृत, कभी नन्हे बालक सा पुलकित
कभी नीले आकाश सा विस्तृत, कभी पुष्प-कली सा संकुचित
हल पर दोलन करता मेरा मन, किसी मृग सा कुलांचे भरता मेरा मन
हर पल स्मृति-सागर में गोते लगाता मेरा मन, किसी नाव सा डूबता उतराता मेरा मन
किसी आहट को सुनकर ठिठक सा जाता है, राह पर चलते-चलते अचानक भटक सा जाता है
लाख बुलाता हूँ मैं उसको वापस, किसी बीती बात पर अटक सा जाता है
किसी के विषय में हल पल सोचा करता है, किसी बात से हल पल थोडा डरता है
जितना ही मैं बाँधा करता हूँ, उतनी उड़ान ये भरता है
आसमान में उड़ता पक्षी मेरा मन, अनंत की ओर अग्रसित मेरा मन
किसी बंधन में विचलित मेरा मन, किसी विचार से हर्षित मेरा मन
मंजिल को ढूढता और भटकता, किसी गली खो जाता है
भूल सभी ये रिश्ते नाते, फिर तन्हा हो जाता है
निद्रा में ये किसी चित्रकार सा, स्वप्न संरचित करता है
जागृत होते ही किसी सुनार सा, विचार सुसज्जित करता है
उलझन के भंवर में घूमता मेरा मन, मस्ती की महफ़िल में झूमता मेरा मन
शब्दों की परिभाषा से परे मेरा मन, जज्बातों की लेखनी से परिभाषित मेरा मन
(ये एक प्रयास था मन को समझने का, जैसा की इस कविता से आपने महसूस किया होगा ....मेरा यह प्रयास एक बार फिर असफल ही रहा ...आखिरी पंक्ति इसी भावना को व्यक्त करती है )
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