Tuesday, September 29, 2015

ख़ुशी

एक अधूरी रचना !

आज बहुत खुश हुआ तो एक ख्याल आया, ख़ुशी क्या होती है ?

गहन सोच विचार के बाद एक उपाय सूझा की शायद थोडा और सोचने पर कुछ संछिप्त और तार्किक परिभाषा बना सकूँ ... पर ज्यों ज्यों सोचता गया त्यों त्यों मामला और उलझता गया !!

एक विचार तो आया कि ... जिस क्षण में जीवन जीने में आनंद कि अनुभूति हो वो ख़ुशी है ..
उस क्षण सब कुछ अच्छा प्रतीत होता है ... एक उमंग सा महसूस होता है ...
दोस्तों के साथ कुछ पल सड़क के किनारे आइसक्रीम खाना, और इधर उधर कि बकवास करना भी एक अलग ही तरह कि ख़ुशी है ...
यूँ तो दार्शनिक दृष्टिकोण से ऊपर लिखी बात में कुछ भी ठोस तत्व नहीं नज़र आता... पर अनुभूति शुरू ही वहां से होती है जहा दार्शनिक दृष्टिकोण समाप्त होता है ..

इसलिए तो किसी भी अनुभूति को शब्दों कि सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता !

मैं भी कहाँ दार्शनिक दृष्टिकोण  के जाल उलझ गया :P

फिर और सोचा तो एक विचार ये भी आया कि ख़ुशी कब और किस बात पर, कितनी होगी इसका कोई मापदंड नहीं है ..
जितना १०० रु पाने  में ख़ुशी नहीं मिलती तो वही १०० रु भी अगर किसी जरूरतमंद को दिए जाए तो अपार ख़ुशी का अनुभव होता है। ....


Thursday, March 1, 2012

मोहब्बत करने लगा हूँ

उनसे नफ़रत करने चला था मैं, अब खुद से ही नफ़रत करने लगा हूँ
मोहब्बत न करने की कसम खायी थी जिससे, उसी से मोहब्बत करने लगा हूँ
मिलते न थे मेरे ख्याल जिससे, उसी की वकालत करने लगा हूँ
खुदा को मैं न मानता था अभी तक, अब उसी की इबादत करने लगा हूँ


दिल के आगे किसी का जोर कभी चलता नहीं, 
सही और गलत से परे, कुछ ऐसे ख्याल करने लगा हूँ

पहले तो झगड़ो में भी गुस्सा न आता था
और अब हर छोटी सी बात पर, बवाल करने लगा हूँ

हल पल एक बेचैनी, एक खुमार सा रहता है
क्यूँ होता है ऐसा, खुद से ही सवाल करने लगा हूँ

गर उनसे कह दूँ तो दोस्ती टूट सकती है
इसलिए न कह कर , इस दिल को हलाल करने लगा हूँ 


शायद उनसे दूर हो जाऊं तो चैन मिले
पर चैन कहा है, उसकी तलाश करने लगा हूँ

चैन को भी शायद उनसे ही मुहब्बत है
चैन भी उनके ही पास मिलता है, ऐसे कयास करने लगा हूँ

दूर होने की फिराक में और करीब हो रहा हूँ
खुद से दूर होकर भी देख लिया जाए,ऐसे प्रयास करने लगा हूँ 

कभी तो उनको मेरी हालत पे तरस आये
उन आँखों में भी प्यार की कुछ बूदें हो,ऐसी आस करने लगा हूँ 
------------------------------------------------------------------------------विपिन 

Wednesday, February 29, 2012

शेर

यूँ तो करते रहे वो हमसे नफ़रत उम्र भर ....
पर रह न सके वो इक पल भी हमारे बिना !! -विपिन  

Tuesday, February 28, 2012

आज मैंने चाँद देखा !!

आज मैंने चाँद देखा ..

यूँ तो रोज़ ही देखते हैं ..पर आज टेलीस्कोप से देखा ..तो पता चला चाँद पर दाग तो हैं.. 

पर वही उसको और खूबसूरत बनाते हैं ..


थोड़ी सी कमी ही सम्पूर्णता की तलब बढाती है ... 

और खूबसूरत होने का एहसास दिलाती है ..


ये मुझे तब पता चला जब ... 

आज मैंने चाँद देखा !!  


---------------------------------------------------------------------------विपिन 


(इनफ़ोसिस की ओर से तरह तरह के तारों और ग्रहों को देखने के लिए टेलीस्कोप का इंतज़ाम किया गया था 


...और चाँद को देखते ही मैं मानो मंत्रमुग्द्ध हो गया था...वही इक छोटा सा ख्याल आया जो यहाँ 


पेश-ए-खिदमत किया है)

Monday, February 13, 2012

मुहब्बत

बसंत ऋतु को प्यार का समय माना जाता है ...जब बंजर दिल में भी प्रेम-पुष्प  खिल जाता है ...और प्रकृति भी मानो इसको बढ़ावा देती है ...ऐसा खूबसूरत समां बंधता है कि कोई भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह पता ....
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मुहब्बत बड़ी हसीन होती है, दिल का चैन चुरा लेती है
याद रहती है एक ही छवि, और खुद को भुला देती है
जितनी कोशिश चाहे कर लो, भूलने न देती है 
ये वो दर्द है, जो चुभती है, पर मज़ा देती है

लगती है हर बात भली, हर अदा सुहानी लगती है
हर पल इक कविता, हर क्षण, नयी कहानी लगती है 
कभी-कभी कौवे सी कर्कश, कभी कोयल की बानी लगती है 
पल में तो बच्ची के जैसी, पल में एक सयानी लगती है 

कहता है इक टूटा आशिक, दर्द बहुत है सीने में
दर्द न हो गर इस जीवन में तो, ख़ाक मज़ा है जीने में
कहता है इक दीवाना कि,  है नशा बहुत कमीने में
नशा न हो गर मदिरा में तो, ख़ाक मज़ा है पीने में
-----------------------------------------------------------विपिन(१४/०२/२०१२)
(आखिरी paragraph कि पहली २ पंक्तियाँ  मेरे पसंदीदा गाने से ली गयी है...थोड़ी सी बदली जरूर हैं पर बात वही है)



Sunday, February 12, 2012

आज चला हूँ मैं

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~आमुख~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
बहुत हुआ अब और नहीं ... जीवन भर जंजीरों में बंधा रहा अब हौसला होता है ...महसूस होता है कुछ कर जाऊँगा ...गर शिखर पर न पंहुचा तब भी कदम जरूर आगे बढ़ाऊंगा...अब लगता है... कुछ कर जाऊँगा ..

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दिल में लिए कितने अरमान चला हूँ मैं, बंधी है मुट्ठी, छूने आसमान चला हूँ मैं
राह में आये लाख मुश्किलें मगर, हर मुश्किल को करने आसान चला हूँ मैं
हौसले से अब मिली है ताकत, दिल में लिए अपना ईमान चला हूँ मैं
मज़बूत हैं इरादे , पंखो में जान है, भरने परवाज़, लगा जी-जान चला हूँ मैं !!

मजबूर था हालातों से मगर, तोड़ने हर बंधन, हर दीवार चला हूँ मैं !
दिखती है जहा तक ज़मीं, क्या अंत है, जानने उस पार चला हूँ मैं !
वक़्त की ताकत कितनी भी हो मगर,हर ढाल पर करते वार चला हूँ मैं!
बावजूद हल पल बुझती लौ के, लिए दिल में उम्मीदे अपार चला हूँ मैं!

अभी बहुत है दूर, मंजिल पाने की आस में बेताब चला हूँ मैं
बिखरे टुकडो से पैदा कर, सच करने हर ख्वाब चला हूँ मैं
पहले भी उठाये हैं कई सवाल, अब लोगो को करने लाज़वाब चला हूँ मैं
कम न होगा साहस इक कतरा, लिए उल्लास बेहिसाब चला हूँ मैं

जिनसे था  मैं डरता अब तक, बनकर उनका काल चला हूँ मैं
जिनसे थी न मिलती आँखे, कर उनपर आँखे लाल चला हूँ मैं
विघ्न विपत्ति आते जो पथ में,उनको ठोकर से टाल चला हूँ मैं
इच्छा तो है हर कुछ पाने की, यूँ ही सपने पाल चला हूँ मैं 


गूंजेगी हर महफ़िल अब सुर से, लेकर सारे साज़ चला हूँ मैं
जिस माता की गरिमा हूँ मैं, करके उस पर नाज़ चला हूँ मैं
मंजिल पाने की नव विधि का , अब करने आगाज़ चला हूँ मैं
बीती बातों को भूला हूँ, लेकर नवोत्कर्ष आज चला हूँ मैं
----------------------------------------------------------------विपिन (१२/०२/२०१२)

(क्रांतिकारी... जो  हर किसी के अंतर्मन में होता है ...किसी भी बात पर झुंझलाता है ...पर बाहर आने से घबराता है ...जब इसमें बाहर आने की शक्ति आ जाती है तो युग परिवर्तन होता है )





Saturday, February 11, 2012

मेरा मन !!

मन, मानव शरीर का सबसे चंचल तत्व है ...किसी मुश्किल से मुश्किल प्रश्न में भी वो जटिलता नहीं होती जो मन में होती है ...और अस्थिरता में तो इसका कोई सानी नहीं है ...इस पल यहाँ तो उस क्षण  कही और ...
इस कविता में जिस अस्थिरता आप अनुभव करेंगे वो इसी मन का दोष है ...मैं तो एक सारथी हूँ जो रथसवार  के आज्ञा के अनुसार ही रथ चलाता है ....

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चंचल सरिता सा बहता मेरा मन, कल-कल छल-छल करता मेरा मन
जाने किस ओर चला है मेरा मन, जाने किसे ढूढ़ रहा है मेरा मन

पल में खुश तो पल में दुखी, पल में  प्रकट तो पल में अन्तरमुखी 
पल में वृक्ष की शीतल छाया, पल में विशाल प्रज्वलित ज्वालामुखी

कभी वीणा के तार सा झंकृत, कभी नन्हे बालक सा पुलकित
कभी नीले आकाश सा विस्तृत, कभी पुष्प-कली सा संकुचित



हल पर दोलन करता मेरा मन, किसी मृग सा कुलांचे भरता मेरा मन
हर पल स्मृति-सागर में गोते लगाता मेरा मन, किसी नाव सा डूबता उतराता मेरा मन 

किसी आहट को सुनकर ठिठक सा जाता है, राह पर चलते-चलते अचानक भटक सा जाता है
लाख बुलाता हूँ मैं उसको वापस, किसी बीती बात पर अटक सा जाता है

किसी के विषय में हल पल सोचा करता है, किसी बात से हल पल थोडा डरता है
जितना ही मैं बाँधा करता हूँ, उतनी उड़ान ये भरता है



आसमान में उड़ता पक्षी मेरा मन, अनंत की ओर अग्रसित मेरा मन
किसी बंधन में विचलित मेरा मन, किसी विचार से हर्षित मेरा मन

मंजिल को ढूढता और भटकता, किसी गली खो जाता है
भूल सभी ये रिश्ते नाते, फिर तन्हा हो जाता है

निद्रा में ये किसी चित्रकार सा, स्वप्न  संरचित  करता है
जागृत होते ही किसी सुनार सा, विचार सुसज्जित करता है

उलझन के भंवर में घूमता मेरा मन, मस्ती की महफ़िल में झूमता मेरा मन
शब्दों की परिभाषा से परे मेरा मन, जज्बातों की लेखनी से परिभाषित मेरा मन

(ये एक प्रयास था मन को समझने का, जैसा की इस कविता से आपने महसूस किया होगा ....मेरा यह प्रयास एक बार फिर असफल ही रहा ...आखिरी पंक्ति इसी भावना को व्यक्त करती है )
  ------------------------------------------------------------------------------------विपिन